ग़ज़लः- कुछ इस तरह गुज़रती है ज़िंदग़ी आजकल।

ग़ज़लः- कुछ इस तरह गुज़रती है ज़िंदग़ी आजकल।   

न सुबह रुमानी न शाम सुरमई लगती है आजकल,
कुछ इस तरह गुज़रती है ज़िंदग़ी आजकल।

टूटकर दिल हो गया है यूं बेज़ार तुझसे,
कि,तेरी दर पर उठती नहीं पलक आजकल।

निग़ाह-ए -शोख़ नापती थी ज़मीनो-असमां पल में,
सन्नाटों से चलकर सन्नाटों पे ख़त्म होती है नज़र आजकल।

कभी वक्त को रोकने की ख़वाहिश होती थी तुझे रूबरू पाकर,
हर लम्हा बिना जिए गुज़ार देने की कोशिश होती है आजकल।
तुझसे मिलने का इंतज़ार होता था बिछड़ने के पल से,
ख्यालों में भी तेरी आमद रुला देती है आजकल।

जिस मिट्टी में ढूँढते थे तेरे आसपास होने के निशां,
वो मिट्टी बेवज़ह कदमों से लिपटती सी लगती है आजकल।

हवाएँ जो सहलाती थीं चेहरे को नर्मी से,
वो हवाएँ अंगार सी लगती हैं आजकल।

महफ़िलें जो ज़िंदादिली से  सराबोर लगती थीं,
ज़िंदग़ी में एक ख़लिश सी छोड़ जाती है आजकल।
अनिता जैन Weekendshayar

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