Hamari Muhabbat
हमारी मुहब्बत
तेरा मिलना रब की रज़ा थी, बिछड़ना उसकी दी सज़ा थी।हमने कुबूल किया दोनों को कि,हमारी मुहब्बत बहुत पाकीज़ा थी।
तेरी-मेरी मुहब्बत रूह और दिल पर लिखी ज़हीन सी ताबीर थी।
न फ़ट सके न मिट सके कि, ये न कागज़ी थी न कलमी थी।
अब दिल के दरके शीशे जुड़ न पाएंगे कि, ये चोट दिल पर आख़री थी।
न और कोई सूरत दिल में बसा पाएंगे कि, शीशा - ए - दिल में बसी तेरी सूरत आख़री थी।
अब ज़माने के सितम हँसकर झेल जाएंगे कि, जिसे वो गुनाह समझे, वो हमारी पाक मुहब्बत थी।
न कोई गिला न शिकवा करने की तमन्ना अब कि,
हमारी मुहब्बत इज़हार-ओ-इकरार की मुहताज़ न थी।
जो चार दिन गुज़ारे तेरे साथ लगता है, वो मेरी पूरी ज़िंदग़ीथी।ज़माने के सितम हसीं थे, धूप भी चाँदनी सी नर्म थी।
रूह-ओ- दिल को सुकून था, न कोई आस न तिष्नगी थी। तेरे ही दम से हवाएँ पुर सुकून और कूचा- ए- दिल में हर लम्हा बहार थी।
कोई भी इल्ज़ाम अब हमें न तोड़ पाएगा कि, हमारी मुहब्बत काबिल-ए- एहतराम थी।
जितना ज़माना गिराएगा हम उतना ही ऊपर उठ जाएंगे कि, हौसला बढ़ाती हैं दिल में महफूज़ वो यादें, जो आज भी उतनी ही ताज़ा जितनी कल थीं।
न मिलने की कोशिश न गुज़ारिश करेंगे तुझसे कभी भी कि, हमने मुहब्बत में कुछ पाने की कभी ख्वाहिश न की थी। ज़ख्म - ए- मुहब्बत को अश्कों के धागों से सीते रहेंगे, अपनी मुस्कुराहटों से सजाते रहेंगे कि,
कहीं ये बिखर न जाए, कहीं ज़ाया न हो जाए,
हमारी मुहब्बत जो काबिल- ए- सलाम थी।
Anita Jain @ weekendshayar.blogspot.in and weekendshayar.com
तेरा मिलना रब की रज़ा थी, बिछड़ना उसकी दी सज़ा थी।हमने कुबूल किया दोनों को कि,हमारी मुहब्बत बहुत पाकीज़ा थी।
तेरी-मेरी मुहब्बत रूह और दिल पर लिखी ज़हीन सी ताबीर थी।
न फ़ट सके न मिट सके कि, ये न कागज़ी थी न कलमी थी।
अब दिल के दरके शीशे जुड़ न पाएंगे कि, ये चोट दिल पर आख़री थी।
न और कोई सूरत दिल में बसा पाएंगे कि, शीशा - ए - दिल में बसी तेरी सूरत आख़री थी।
अब ज़माने के सितम हँसकर झेल जाएंगे कि, जिसे वो गुनाह समझे, वो हमारी पाक मुहब्बत थी।
न कोई गिला न शिकवा करने की तमन्ना अब कि,
हमारी मुहब्बत इज़हार-ओ-इकरार की मुहताज़ न थी।
जो चार दिन गुज़ारे तेरे साथ लगता है, वो मेरी पूरी ज़िंदग़ीथी।ज़माने के सितम हसीं थे, धूप भी चाँदनी सी नर्म थी।
रूह-ओ- दिल को सुकून था, न कोई आस न तिष्नगी थी। तेरे ही दम से हवाएँ पुर सुकून और कूचा- ए- दिल में हर लम्हा बहार थी।
कोई भी इल्ज़ाम अब हमें न तोड़ पाएगा कि, हमारी मुहब्बत काबिल-ए- एहतराम थी।
जितना ज़माना गिराएगा हम उतना ही ऊपर उठ जाएंगे कि, हौसला बढ़ाती हैं दिल में महफूज़ वो यादें, जो आज भी उतनी ही ताज़ा जितनी कल थीं।
न मिलने की कोशिश न गुज़ारिश करेंगे तुझसे कभी भी कि, हमने मुहब्बत में कुछ पाने की कभी ख्वाहिश न की थी। ज़ख्म - ए- मुहब्बत को अश्कों के धागों से सीते रहेंगे, अपनी मुस्कुराहटों से सजाते रहेंगे कि,
कहीं ये बिखर न जाए, कहीं ज़ाया न हो जाए,
हमारी मुहब्बत जो काबिल- ए- सलाम थी।
Anita Jain @ weekendshayar.blogspot.in and weekendshayar.com
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